इस ब्लॉगपोस्ट को हिंदी में लिखने का एक मुख्य कारण ये है कि इसका सीधा सम्बन्ध हम और हमारे अपने लोगों से है । इसे आगे पढ़ने से पहले आप से एक विनती है कि इसे आप किसी धर्म, जाति, संप्रदाय या विचारधारा के संकीर्ण लेंस से ना देखें । इसे केवल एक भारतीय नागरिक की नज़र से पढ़ें , जिसका केवल हिंदुस्तान और उसके संवैधानिक नागरिक होने के अलावा और कोई परिचय नहीं है । क्यूंकि यह एक गहरा विषय है और इस पर कोई भी टिप्पणी संक्षिप्त में करना मूर्खता होगी , इसीलिए हम इसे दो भागों में समझने की कोशशि करेंगे । तो पहले शुरू करते हैं , ये दो चार बड़े-बड़े शब्दों को लेकर आजकल जो ज़बरदस्त बहस चल रही है : धर्मनिरपेक्षता, असहिष्णुता और राष्ट्रवाद इत्यादि ... इस बहस के मुद्दे पर कुछ विचार यहाँ साझा करने का प्रयत्न है। *** धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा शब्द है जिसकी संकल्पना आज शायद ही दुनिया के किसी और देश में संवैधानिक या सामाजिक रूप में देखने और सुनने को मिलेगी । ऐसा लगता है जैसे इस शब्द को अपने आप में पूर्ण रूप से लागू करने का सारा ठेका सिर्फ और सिर्फ भारतवर्ष ने ले लिया है । धर्मनिरपेक्षता ए
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