"मज़हबी बहस मैं ने की ही नहीं
फ़ालतू अक़्ल मुझ में थी ही नहीं
~ Sujoy Biswas (Joy) on Twitter
पिछले लेख के माध्यम से हमने धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रवाद ... को बहुत संक्षिप्त में समझने की कोशिश की थी ।
इस लेख के जरिये हम धर्मनिरपेक्षता का सामजिक अर्थ समझने की कोशिश करेंगे ।
जैसा कि हमने पिछले लेख में जिक्र किया था , धर्मनिरपेक्षता एक बहुत ही नयी सोच है जो पिछले करीब तीन सौ साल पुरानी संकल्पना है । हम उस देश के वासी हैं जिस देश में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की सोच करीब ढाई हज़ार साल पुरानी है । आज पूरा देश इस समय धर्मनिरपेक्षता की बहस करता है, बिना ये जाने समझे कि इसका उपयोग कहाँ से और क्यों शुरू हुआ; और आज इस शब्द ने हमारी सामाजिक ज़िंदगी को एक नया मोड़ दे दिया है । उस मोड़ पर हम कैसे पहुंचे और वहां पहुँच कर हम धर्मनिरपेक्षता को किस रूप में समझते हैं, इसका विश्लेषण हम इस लेख में करेंगे।
पिछले साठ साल के भारतीय प्रसंग में धर्मनिरपेक्ष का मतलब रहा है: अल्पसंख्यक धर्म और संप्रदाय के लोगों को खुश रखना और इसके अंतर्गत हिन्दू धर्म और समाज पर लगातार अत्याचार और गैर-ज़िम्मेदाराना आरोपण करते रहना । धर्मनिरपेक्ष समाज के लिए लड़ते-लड़ते हमने हिन्दू धर्म पर एक ऐसी जिम्मेदारी ढोल दी, जिसके चलते हमने अपने मूल रूप से भारत-वासी होने की पहचान और उसकी जड़ो को ही काटना शुरू कर दिया । और इस नेक कार्य को पूरा करने के लिए अल्पसंख्यक धर्म के लोग नहीं, बल्कि हिन्दू धर्म के लोग कहीं ज़्यादा जोश और उत्साह के साथ जुट गए । धर्मनिरपेक्ष एक ऐसा एकतरफ़ा मार्ग हो गया , जिस पर चलते-चलते अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (Freedom o Expression) के अंतर्गत :
१) सभी अल्पसंख्यक धर्म 'सामाजिक और कानूनन' तौर पर अपनी मन-मर्ज़ी कर सकते हैं,
२) हिन्दू धर्म के साथ गाली-गलोच करना पूर्ण रूप से जायज़ है ,
३) हिन्दू धर्म की आलोचना और अनादर करना धर्मनिरपेक्ष कहलाने का बेहतरीन उदहारण है ; और
४) कभी कोई आवाज़ उठे तो उसे साम्प्रदायिक, असहिष्णुता और 'भगवा-आतंकवाद' का नाम दे सकते हैं ।
यदि हमें धर्मनिरपेक्षता की इतनी चिंता है और अगर इसे सही परिपेक्ष में लागू करने की चाहत है, तो सबसे पहले हमें इस धर्मनिरपेक्ष समाज और कानून को धर्म के दायरे से अलग करना होगा - फिर चाहे वो अल्पसंख्यक धर्म भी क्यों न हो । इस कार्य को अंजाम देने के लिए सबसे पहले हमें आम नागरिक संहिता (Common Civil Code) लागू करना होगा - तब ही सही मायने में आप एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र और समाज की परिकल्पना कर सकते हैं ।
लेकिन नहीं , जब कभी इस तरह की विकसित सोच वाले सुझाव या बहस जो हमें एक ख़ास आस्था, विचारधारा और धार्मिक प्रणाली के खिलाफ लगने लगती है, तभी हमारे धार्मिक-गुरु और धर्म के ठेकेदार उस पर विराम लगा देते हैं । तो फिर ये फर्जी-धर्मनिरपेक्षता का इतना हल्ला क्यों? इस दोहरी विचारधारा का सीधा अर्थ ये हुआ कि जो लोग धर्मनिरपेक्षता का गाना गाते हैं वो असल रूप में धर्मनिरपेक्ष समाज चाहते ही नहीं हैं, और वही लोग सबसे अधिक सांप्रदायिक भी होते हैं । ये एक तरह का बहुत बड़ा धोका और घिनौना राजनीतिक मज़ाक है इस पूरे राष्ट्र पर, जहाँ घोर साम्प्रदायिकता को धर्मनिरपेक्षता के नाम से बेचा जाता है ।
पाश्चात्य सभ्यता के परिपेक्ष से देखें तो हम उनका तीन सौ साल नया धर्मनिरपेक्ष सोच, हमारे भारतवर्ष के ढाई हज़ार साल पुराने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की परिकल्पना को केवल साठ साल में भूल कर, पूर्ण रूप से अवशोषित कर चुके हैं ।
हम इसको यूँ भी समझ सकते हैं कि धर्मनिरपेक्षता, तत्कालीन भारतीय परिवेश में बेहद ही साम्प्रदायिक सोच है जबकि 'वसुधैव कुटुम्बकम्' ऐतिहासिक रूप से कहीं ज़्यादा सम्मिलित , विकसित और धर्मनिरपेक्ष साबित होता है ।
इस विडम्बना को हम एक जीता-जगता उदहारण भी कह सकते हैं जो पाश्चात्य भूमंडलीकरण (Globalization) की देन है। और पाश्चात्य दृष्टिकोण का भूमंडलीकरण (Globalization) असल रूप में क्या बला है - हम अगले लेख में विस्तार से समझने की कोशिश करेंगे ।
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