The best way to permanently enslave a people isto replace their memories, their mythologies, their idioms
~ Sanjeev Sanyal
पिछले दो लेखों में हमने धर्मनिरपेक्षता के इतिहास और उसके भारतीय प्रसंग में सामाजिक उपयोगिता पर चर्चा की थी ।
इस लेख में हम कुछ पाश्चात्य शब्दावली के भारतीय परिवेश में राजनैतिक एवं सामाजिक उपयोग और प्रासंगिकता पर बात करेंगे । ये एक बहुत तीखी लेकिन सरल टिपण्णी होगी, जिससे शायद सबका सहमत हो पाना नामुमकिन होगा - लेकिन "असहमति पर सहमति" का पालन करते हुए हम आगे बढ़ते हैं ।
हम बात कर रहे हैं कुछ ऐसे शब्दों की जो हमारे देश में पश्चिम सभ्यता से आयात किये गए हैं और अमूमन रोज़ाना अख़बार और टीवी के माध्यम से हमें इनकी काफी बड़ी मात्र में ख़ुराक़ मिलती रही है । बहुलवाद (Plularism), सहनशीलता (Tolerance), बहुसंस्कृतिवाद (Multiculturalism) , भूमंडलीकरण (Globalization) जैसे शब्द इसी शब्दावली के अंतर्गत आते हैं , मूलतः जिनका भारतीय सभ्यता से क़रीब ५००० साल पुराना रिश्ता है ।
इन शब्दावली को समझने के लिए हमें भूमंडलीकरण (Globalization) नाम के हाथी को समझना अति-आवश्यक है ।
Globalisation ~ Elephant in the room!
भूमंडलीकरण (Globalisation) को हमें 'व्यापार' के दृष्टिकोण से अलग करके समझने की कोशिश करना होगा क्यूंकि व्यापार का पहलू आते ही सभी मापदंड बदल जाते हैं और 'सामाजिक और सांस्कृतिक' मतभेद छुपे रह जाते हैं । हमें उन छुपे हुए सामाजिक और सांस्कृतिक मतभेदों को अलग से समझना होगा । कुछ कुंजी-शब्द (Key Words) हैं, जिनके माध्यम से हम इन मतभेदों तक पहुँच सकते हैं, जैसे:
अद्वैतवाद (Monotheism), एक-संस्कृति (Monoculture), मानकीकरण (Standardisation), सार्वभौमिकता (Universalism), अलगाववादी (Exclusivist), भौतिकवाद (Materialism), व्यक्तिवाद (Individualism)
ये कुछ ऐसे शब्द हैं जो हमें भूमंडलीकरण (Globalisation) नाम के हाथी को एक अलग परिवेश में समझने में मदद करते हैं ।
भूमंडलीकरण (Globalisation) की ये परिभाषा हमारी नहीं है । हम तो 'विविधता में एकता' (Unity in Diversity) वाली 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की संकल्पना में विश्वास रखते हैं ।
Diversity, not Uniformity, is the Idea of India.
भूमंडलीकरण (Globalisation) एक तरह से पाश्चात्य सार्वभौमिकता (Universalism) का वाहन है - एक दो छोटे मासूम उदाहरणों से इसे स्पष्ट रूप में समझने में मदद मिलेगी :
- अब हमारे पप्पू, बब्लू और मुन्नी विदेश जाकर या फिर यहीं अंग्रेज़ी के दो चार बड़े-बड़े नाम की किताब पढ़ कर अपने अन्यथा बुद्धिमान माता-पिता को ये बताते हुए बेहद गर्व महसूस करते हैं कि चम्मच और छुरी किस हाथ से पकड़ते हैं और उन्हें खाने की टेबल पर कैसे सज़ा कर रखा जाता है ।
- आज ये हाल है कि एक बच्चा अपनी माँ के हाथ के ताजे बने हुए गरम-गरम आलू के पकोड़े की जगह 'अंकल चिप्स' की तरफ़ ज़्यादा ध्यान देता है ।
सवाल गलत और सही का नहीं है । इस बहस में सबसे पहले हम सही और गलत ढूंढने निकल पड़ते हैं । सवाल है हमारी मूल पहचान, हमारे देश और उसके भूगोल और जलवायु के हिसाब से खान-पान और रहन-सहन का । जब हमारा खान-पान, रहन-सहन, पहनावा सब कुछ इनसे इतना भिन्न और अलग है, तो फिर हम क्यों सार्वभौमिकता (Universalism) के पीछे भेड़ के तरह चलते रहते हैं ?
Computer chips, YES! Potato chips, No!!
पाश्चात्य भूमंडलीकरण (Globalisation) का दूसरा उद्देश्य है पूरे विश्व और ख़ास-तौर पर 'एक सौ बीस करोड़' की जनसँख्या वाले भारत देश को 'सभ्य' (civilized) बनाना । अब सभ्यता की क्या परिभाषा होती है ये भी हमें इनसे ही सीखना पड़ेगा ? थोड़ा ४०० साल पीछे का इतिहास देखें तो असलियत ये है कि इनको चड्डी पहनना हमने सिखाया था जब सत्रहवीं शताब्दी में भारत से बहुत उच्च क्वालिटी का मलमल ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा निर्यात हुआ करता था । उसके भी पहले का इतिहास देखें तो ये ख़ानाबदोश यूरोप-वासी अनपढ़ गँवार लोग थे जो एक दूसरे को लूट-मार कर अपना जीवन चलाते थे।
An artist's impression of Chanakya |
आज से ढाई हज़ार साल पहले चाणक्य ने प्राचीन भारतीय राजनीतिक ग्रंथ के माध्यम से हमें जो ज्ञान दिया था , उसे तोड़-मरोड़ कर दो सौ साल पहले एक नए परिवेश और नए packaging में हमें पश्चिम दर्शनिकों और विचारकों ने अंग्रेजी भाषा में वापस दे दिया । और हम उसे बड़े गर्व और ग़ुरूर के साथ लेकर चलते-चलते बुद्धिजीवी कहलाने लगे । लेकिन हमने कभी अपने वेद-पुराण और चाणक्य को पढ़ने की ज़रूरत नहीं समझी और इसी कारणवश हम अपनी पारम्परिक सभ्यता और उसके अपार ज्ञान-सागर से इतने दूर चले गए की नक़ली को ही असली समझ बैठे।
चाणक्य के बाद 'मनुस्मृति' (मानव-धर्मशास्त्र) एक ऐसा ग्रंथ था जो सामाजिक-नियम-क़ानून का पूरा ढांचा दो हज़ार साल पहले तैयार कर चुका था । कर्तव्यों, अधिकारों, कानून, आचरण, गुण जैसी क्लिष्ट और विकसित अवधारणाओं पर 100,000 छंद और 1,080 अध्यायों के माध्यम से प्रवचन करने की परिकल्पना भी नहीं कर सकते थे ३०० साल पहले के यूरोप-वासी जो एक ख़ानाबदोश का जीवन जीते थे । वर्तमान कल-युग के परिवेश में मनुस्मृति जैसे ग्रन्थ पर सही या गलत की टिप्पणी करना एक बहुत बड़ी मूर्खता होगी । उसे सही और ग़लत के तराज़ू में तोलने का काम करने वाले हम लोग ही हैं , और आज के सामाजिक परिवेश में उस प्राचीन ढांचे के परिवर्तन का कार्य करना भी हमारे हाथों में है ।
भूमंडलीकरण (Globalisation) का तीसरा आधार कहें या श्राप - गैर-जिम्मेदार उपभोक्तावाद (Irresponsible Consumersim) या भौतिकवाद (Materialism) | इसका सीधा उदहारण हमें यूरोप की १९ वीं शताब्दी की सभ्यता, शास्त्रीय संस्कृति और परम्परा के अंतर्गत कला, संगीत और साहित्य की घटती लोकप्रियता की वर्तमान स्थिति को देख कर मिलता है । अत्यधिक व्यवसायीकरण और भौतिकवाद के कारण आज इनकी दो सौ साल पुरानी सभ्यता यूरोप में अपनी अंतिम सांसें गिन रही है ।
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इसका ये अर्थ नहीं है कि भूमंडलीकरण (Globalisation) से हम अपने आपको दूर रखें या बाहर की दुनिया से बिलकुल बंद कर लें - कभी नहीं । आज के युग में इसकी कल्पना भी करना मूर्खता होगी । लेकिन इस भूमंडलीकरण (Globalisation) नाम के हाथी को ठीक तरह से समझ कर और उसके सभी अदृशय तत्वों का अपने सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान पर असर न होने देने का प्रयास करते हुए हमें बहुत ही सावधानी और कुशलता के साथ आगे बढ़ना होगा ।
हमने तो वैश्विक स्तर पर व्यापार (Global Trade) करना अपने पूर्वजों से सीखा है । एक ज़माना था जब दो हज़ार साल पहले भारतवर्ष का वैश्विक वयवसाय (Global Trade) में २० % योगदान था । वैश्विक स्तर पर व्यापार करना हमारी दो हज़ार साल पुरानी पारम्परिक धरोहर है जिसे हमने खो दिया है ।
जब भी हम 'बाजार-आधारित अर्थव्यवस्था' (Market-Based Economy) की बात करते हैं , तब हम और हमारे होनहार पढ़े-लिखे अर्थशास्त्रियों को बहुत स्पष्ट रूप से इस भूमंडलीकरण (Globalisation) नामक हाथी के तत्वों को समझना होगा - अर्थव्यवस्था का आधार 'Market-Based' होना चाइये - समाज और सामाजिक तौर-तरीके बाजार (market-based) नहीं , धरोहर और परंपरा (Heritage & Traditions based) पर आधारित होते हैं । कुछ बुद्धि-जीवी इस सोच को दकियानूसी और पुराने विचारों का मानते होंगे परन्तु आधुनिक और उदारवादी होने का मतलब अपनी मूल जड़ों को भुला देना नहीं , बल्कि उनका एहसास और उनके पूरे ज्ञान के साथ आगे बढ़ना होता है ।
संक्षिप्त में कहें तो हम 'बाजार-आधारित' अर्थव्यवस्था (Market-Based Economy) चाहते हैं लेकिन 'बाजार-आधारित' समाज व्यवस्था (Market-Based Society) कभी नहीं ।
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हमें अपने पारम्परिक ज्ञान-सागर में उतरना होगा, उसको पढ़ना और समझना होगा। तभी हम अपने आपको इस 'नक़ली प्रकाश' रूपी अंधकार से उबार सकते हैं । तभी हम अपनी सभ्यता और संस्कृति में भरोसा रख उसपर गर्व कर सकते हैं । नहीं तो हम पढ़े लिखे लोग पश्चिन्मी सभ्यता के दास (Slave) बन कर अपनी बाक़ी बची हुई पहचान भी मिटा देंगे । इस पूरी प्रक्रिया में हम उपयोगी बेवकूफ (Useful Idiot) बन कर उनकी पहचान इस महान भारतवर्ष में स्थापित कर देंगे और यही आज की अन्तर्राष्ट्रीय रणनीति का सबसे बड़ा उद्देश्य है । ये वो लड़ाई नहीं है जो रणस्थल में रची जाती है, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा ख़तरनाक - एक सौ बीस करोड़ की आबादी पर एक यूनिवर्सल पहचान और वर्चस्व स्थापित करने की लड़ाई है , जिसे हम और हमारे बुद्धू-जीवी समझ ही नहीं पा रहे हैं ।
शिक्षा, गरीबी, जातिवाद, आर्थिक-असमानता जैसी हमारे देश की जटिल समस्याओं को जड़ से ख़त्म करने का हल भी भारतीय सभ्यता और पारम्परिक नींव से ही निकलेगा ।
हमें सबसे पहले अपने घर (देश) और अपने लोगों को 'अपना' समझना होगा। वही हमारी अपनी असली पहचान है। जैसे भी हैं, अपने है - "एड़ा है, पर मेरा है " में भरोसा करना होगा । मेरा देश मेरी पहचान है - जैसा भी है मेरा है और इसके ज़िम्मेवार भी हम ही हैं । कोई दूसरा आकर इसे नहीं सम्हालेगा । इससे दूर भाग कर और दूसरा बसेरा बसा लेने से किसी समस्या का समाधान नहीं होगा , बल्कि हम अपनी पहचान खो चुके होंगे और फिर ना यहाँ के रहेंगे ना वहां के ।
मकान दीवारों से बनता है, घर उसमे रहने वालों से ;देश सरहदों से बनता है, राष्ट्र उसमे रहने वालों से ;अपने घर और राष्ट्र को दीमक से बचाएँ ।
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